Tuesday, November 15, 2022

सीता की अग्नि परीक्षा

बस यही बात हैं।
राजा राम ने जो राज्य बनाया आज लाखो साल बीत जाने पर भी उनकी स्मृति हमारे मन पटल पर इतनी स्पष्ट है कि हमको राम राज्य ही चाहिए दूसरा कोई राज्य नहीं।
अधिकांश राजा अपने को राम जी से ही जोड़ते रहे हैं हजारों साल से जोड़ते रहे हैं।
जब वो राज काज का संकल्प लेते है तो उनके सामने भगवान श्री राम का ही चित्र होता है।
राम जी होते तो क्या करते है?
अगर इस क्षण इस जगह राम जी होते तो वो क्या करते ?
बस धर्म भी ये ही है।
प्रत्येक हिन्दू ने उसमें भी जिस भी हिंदू का राज काज से संबद्ध है अपने प्रत्येक राजकीय कार्य में भी ये ही विचार करना है आज मेरे स्थान पर राम जी रहते तो वो क्या करते?
इसमें किंचित भी किंतु परंतु नही कर सकते।
राम जी पदाति एकांकी खड़े है?
सामने संपूर्ण शस्त्र भंडार से युक्त उन्नत रथ पर कवच कुंडल सहित दशानंद हैं।
पर मेरे राम तो मात्र कोपिन पर धनुष और तुनीर लिए स्मित हास्य करते रावण को निहार रहे हैं।
रावण के प्रत्येक बाण को सरलता से काट देते है
रक्त के रिस रिस के नीचे गिरने से उनके कमल समान पैर रक्तिम आभा लिए अत्यंत दिव्य जान पड़ते है।
युद्ध का इस भीषण वातावरण हैं पर लगता नही राम जी वही खड़े है या नही?
कोई नही जान सकता।
न कोई उत्तेजना है न कोई चिंता
बस अपने क्षत्रिय धर्म का मानव धर्म का निर्वाह कर रहे हैं
क्या खेल है प्रभु?
कौन जान सकता है?
उनका रोष भी रोष है या नही ,सब माया है
भगवान वाल्मीकि ने
गोस्वामी तुलसीदास ने जैसे उसे अपने चक्षु से देखा हो।
जो राज्य स्थापित कर गए वो इतने वर्ष बाद भी हम चाहते है
जिसमे कोई अकाल मृत्यु को भी प्राप्त नहीं होता है अन्य दुख की बात ही छोड़ो।
अपनी पत्नी सीता माता को आप उलाहना दे रहे हैं सामान्य मनुष्य भांति सबके बीच में।
आहा 
क्या दिव्यता है।सब जानते हुवे भी आप कितने भोले बनते हो प्रभु।
तो मां भी कहां पीछे रहने वाली है वो भी भगवती है इसके बिना तो निष्क्रिय ब्रह्म हो आप।शक्ति ही शिव को बनाने वाली है न
तो उन्होंने भी वापस कह दिया
त्वया तु नृपशार्दूल रोषमेवानुवर्तता ⁠। लघुनेव मनुष्येण स्त्रीत्वमेव पुरस्कृतम् ⁠।⁠।⁠१४⁠।⁠। ‘नृपश्रेष्ठ! आपने ओछे मनुष्यकी भाँति केवल रोषका ही अनुसरण करके मेरे शील-स्वभावका विचार छोड़कर केवल निम्नकोटिकी स्त्रियोंके स्वभावको ही अपने सामने रखा है ⁠।⁠।⁠१४⁠।⁠। अपदेशेन जनकान्नोत्पत्तिर्वसुधातलात् ⁠। मम वृत्तं च वृत्तज्ञ बहु ते न पुरस्कृतम् ⁠।⁠।⁠१५⁠।⁠। ‘सदाचारके मर्मको जाननेवाले देवता! राजा जनककी यज्ञभूमिसे आविर्भूत होनेके कारण ही मुझे जानकी कहकर पुकारा जाता है। वास्तवमें मेरी उत्पत्ति जनकसे नहीं हुई है। मैं भूतलसे प्रकट हुई हूँ। (साधारण मानव-जातिसे विलक्षण हूँ—दिव्य हूँ। उसी तरह मेरा आचार-विचार भी अलौकिक एवं दिव्य है; मुझमें चारित्रिक बल विद्यमान है, परंतु) आपने मेरी इन विशेषताओंको अधिक महत्त्व नहीं दिया—इन सबको अपने सामने नहीं रखा ⁠।⁠।⁠१५⁠।⁠। न प्रमाणीकृतः पाणिर्बाल्ये मम निपीडितः ⁠। मम भक्तिश्च शीलं च सर्वं ते पृष्ठतः कृतम् ⁠।⁠।⁠१६⁠।⁠। ‘बाल्यावस्थामें आपने मेरा पाणिग्रहण किया है, इसकी ओर भी ध्यान नहीं दिया। आपके प्रति मेरे हृदयमें जो भक्ति है और मुझमें जो शील है, वह सब आपने पीछे ढकेल दिया—एक साथ ही भुला दिया’ ⁠।⁠।⁠१६⁠।⁠।

लो सुन लो जगन्नाथ।
अपनी लीला पर वापस भी तो सुनना पड़ेगा न
पर आपने ही सब खेल रचाया है कौन जान सकता है क्यों रचाया?बस अनुमान कर सकते हैं हम।
ब्रह्मा जी को भी आना पड़ रहा है
ये क्या कर रहे हो प्रभु?
साधारण मनुष्यो की भांति?
आप जानते नही आप कौन हो?
कर्ता सर्वस्य लोकस्य श्रेष्ठो ज्ञानविदां विभुः ⁠। उपेक्षसे कथं सीतां पतन्तीं हव्यवाहने ⁠। कथं देवगणश्रेष्ठमात्मानं नावबुद्‌ध्यसे ⁠।⁠।⁠६⁠।⁠। ‘श्रीराम! आप सम्पूर्ण विश्वके उत्पादक, ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ और सर्वव्यापक हैं। फिर इस समय आगमें गिरी हुई सीताकी उपेक्षा कैसे कर रहे हैं? आप समस्त देवताओंमें श्रेष्ठ विष्णु ही हैं। इस बातको कैसे नहीं समझ रहे हैं ⁠।⁠।⁠६⁠।⁠।
ऋतधामा वसुः पूर्वं वसूनां च प्रजापतिः ⁠। त्रयाणामपि लोकानामादिकर्ता स्वयंप्रभुः ⁠।⁠।⁠७⁠।⁠। ‘पूर्वकालमें वसुओंके प्रजापति जो ऋतधामा नामक वसु थे, वे आप ही हैं। आप तीनों लोकोंके आदिकर्ता स्वयं प्रभु हैं ⁠।⁠।⁠७⁠।⁠। रुद्राणामष्टमो रुद्रः साध्यानामपि पञ्चमः ⁠। अश्विनौ चापि कर्णौ ते सूर्याचन्द्रमसौ दृशौ ⁠।⁠।⁠८⁠।⁠। ‘रुद्रोंमें आठवें रुद्र और साध्योंमें पाँचवें साध्य भी आप ही हैं। दो अश्विनीकुमार आपके कान हैं और सूर्य तथा चन्द्रमा नेत्र हैं ⁠।⁠।⁠८⁠।⁠।
अन्ते चादौ च मध्ये च दृश्यसे च परंतप ⁠।उपेक्षसे च वैदेहीं मानुषः प्राकृतो यथा ⁠।⁠।⁠९⁠।⁠। ‘शत्रुओंको संताप देनेवाले देव! सृष्टिके आदि, अन्त और मध्यमें भी आप ही दिखायी देते हैं। फिर एक साधारण मनुष्यकी भाँति आप सीताकी उपेक्षा क्यों कर रहे हैं?’ ⁠।⁠।⁠९⁠।⁠।

विधाता की इस उलाहना के बाद भी आप मंद मंद मुस्कुराते हुवे पिता समान इस जगत को खेल दिखाते हुवे बोले
आत्मानं मानुषं मन्ये रामं दशरथात्मजम् ⁠।
 सोऽहं यश्च यतश्चाहं भगवांस्तद् ब्रवीतु मे ⁠।⁠।⁠११⁠।⁠।
‘देवगण! मैं तो अपनेको मनुष्य दशरथपुत्र राम ही समझता हूँ। भगवन्! मैं जो हूँ और जहाँसे आया हूँ, वह सब आप ही मुझे बताइये’ ⁠।⁠।⁠११⁠।⁠।

लो कर लो बात।
मैं कौन हूं ये भी अब आपको ब्रह्मा जी बताएंगे?
पर विचार करो ठीक ही तो कहा है
वेदांत में ब्रह्म कौन है मैं कौन है ये गुरु ही तो बताते है इसके बाद ही न हम स्वाध्याय करते है मनन करते है तब ही जान पाते है
अक्षरं ब्रह्म सत्यं च मध्ये चान्ते च राघव ⁠। लोकानां त्वं परो धर्मो विष्वक्सेनश्चतुर्भुजः ⁠।⁠।⁠१४⁠।⁠। ‘रघुनन्दन! आप अविनाशी परब्रह्म हैं। सृष्टिके आदि, मध्य और अन्तमें सत्यरूपसे विद्यमान हैं। आप ही लोकोंके परम धर्म हैं। आप ही विष्वक्सेन तथा चार भुजाधारी श्रीहरि हैं ⁠।⁠।⁠१४⁠।⁠।

ये त्वां देवं ध्रुवं भक्ताः पुराणं पुरुषोत्तमम् ⁠। प्राप्नुवन्ति तथा कामानिह लोके परत्र च ⁠।⁠।⁠३१⁠।⁠। ‘आप पुराणपुरुषोत्तम हैं। दिव्यरूपधारी परमात्मा हैं। जो लोग आपमें भक्ति रखेंगे, वे इस लोक और परलोकमें अपने सभी मनोरथ प्राप्त कर लेंगे’ ⁠।⁠।⁠३१⁠।⁠।

ब्रह्मा जी ने जब राम जी को उनका स्वरूप समझा दिया तब अचानक से सात्विक अग्नि भड़क उठी।जिस चिता में माता विराजमान थी उसमे से अग्नि देव प्रकट हुवे माता को गोद। में लिए हुवे वो बाहर आए
विधूयाथ चितां तां तु वैदेहीं हव्यवाहनः ⁠।
उत्तस्थौ मूर्तिमानाशु गृहीत्वा जनकात्मजाम् ⁠।⁠।⁠२⁠।⁠। उस चिताको हिलाकर इधर-उधर बिखराते हुए दिव्य रूपधारी हव्यवाहन अग्निदेव वैदेही सीताको साथ लिये तुरंत ही उठकर खड़े हो गये ⁠।⁠।⁠२⁠।⁠।

और मां का वो दिव्य रूप?
तरुणादित्यसंकाशां तप्तकाञ्चनभूषणाम् ⁠। रक्ताम्बरधरां बालां नीलकुञ्चितमूर्धजाम् ⁠।⁠।⁠३⁠।⁠। अक्लिष्टमाल्याभरणां तथारूपामनिन्दिताम् ⁠। ददौ रामाय वैदेहीमङ्के कृत्वा विभावसुः ⁠।⁠।⁠४⁠।⁠। सीताजी प्रातःकालके सूर्यकी भाँति अरुण-पीत कान्तिसे प्रकाशित हो रही थीं। तपाये हुए सोनेके आभूषण उनकी शोभा बढ़ा रहे थे। उनके श्रीअङ्गोंपर लाल रंगकी रेशमीसाड़ी लहरा रही थी। सिरपर काले-काले घुँघराले केश सुशोभित होते थे। उनकी अवस्था नयी थी और उनके द्वारा धारण किये गये फूलोंके हार कुम्हलायेतक नहीं थे। अनिन्द्य सुन्दरी सती-साध्वी सीताका अग्निमें प्रवेश करते समय जैसा रूप और वेष था, वैसे ही रूप-सौन्दर्यसे प्रकाशित होती हुई उन वैदेहीको गोदमें लेकर अग्निदेवने श्रीरामको समर्पित कर दिया ⁠।⁠।⁠३-४।।

सुनो ध्यान से मूर्खों!!
वैराग्य की अग्नि काम को जला के दग्ध कर देती है
अग्निहोत्र में ब्रह्मा की उपस्थिति में जब यजमान समिधा अर्पित करता है तब उसकी चेतना का स्तर ऊपर उठना आरंभ होता है वैदिक मंत्र में उनका ध्यान ईश्वर में लगना आरंभ होता है उसके स्वरूप का बोध होने लगता है उस समय शक्ति का दिव्य दर्शन होता है।
प्रभु स्वयं अपने अनावृत कर रहे है यहां।
बता रहे है कि मैं कौन हूं?

जब तक वेदांत प्रक्रिया से आप जान नही पाते है स्वयं को तब तक साधारण मनुष्य की भांति राग द्वेष में फंसे हो
पर जो हो 
यज्ञ की वो दिव्या अग्नि
आपके हृदय में जलना आरंभ होती है तो उसमे से भगवती सीता प्रकट होती है
उसमे कोई दोष नही है
विषय वासना के इस संसार में फंसी होने के बाद भी वो निरंतर पूर्ण ब्रह्म अक्षर पुरुषोत्तम
परमात्मा श्री राम में विचार में ही मग्न है
संसार में एकांकी परवश जो थी जो इस जगत के रावण ने हरण किया है पर भक्ति को निष्ठा तो भगवान के चरण में ही है यज्ञ की अग्नि इसका प्रमाण भी स्वयं दे रही है 
देखो शास्त्र वचन
रावणेनापनीतैषा वीर्योत्सिक्तेन रक्षसा ⁠। त्वया विरहिता दीना विवशा निर्जने सती ⁠।⁠।⁠७⁠।⁠। ‘अपने बल-पराक्रमका घमंड रखनेवाले राक्षस रावणने जब इसका अपहरण किया था, उस समय यह बेचारी सती सूने आश्रममें अकेली थी—आप इसके पास नहीं थे; अतः यह विवश थी (इसका कोई वश नहीं चला) ⁠।⁠।⁠७⁠।⁠।
रुद्धा चान्तःपुरे गुप्ता त्वच्चित्ता त्वत्परायणा ⁠। रक्षिता राक्षसीभिश्च घोराभिर्घोरबुद्धिभिः ⁠।⁠।⁠८⁠।⁠। ‘रावणने इसे लाकर अन्तःपुरमें कैद कर लिया। इसपर पहरा बिठा दिया। भयानक विचारोंवाली भीषण राक्षसियाँ इसकी रखवाली करने लगीं। तब भी इसका चित्त आपमें ही लगा रहा। यह आपहीको अपना परम आश्रय मानती रही ⁠।⁠।⁠८⁠।⁠।
विशुद्धभावां निष्पापां प्रतिगृह्णीष्व मैथिलीम् ⁠। न किंचिदभिधातव्या अहमाज्ञापयामि ते ⁠।⁠।⁠१०⁠।⁠। ‘अतः इसका भाव सर्वथा शुद्ध है। यह मिथिलेशनन्दिनी सर्वथा निष्पाप है। आप इसे सादर स्वीकार करें। मैं आपको आज्ञा देता हूँ, आप इससे कभी कोई कठोर बात न कहें’ ⁠।⁠।⁠१०⁠।⁠।

देखा कुछ?
अग्नि आज्ञा दे रही है भगवान को
कि ये नाटक बंद कर दो प्रभु अब।
भक्ति वैराग्य ज्ञान साधना तप को अग्नि में तप कर कुंदन बन चुकी है आपमें ही अनुरक्त है इस लोक परलोक के कोई भौतिक या अभौतिक सुख को नही चाहती है केवल आपको चाहती है।
तो भगवान भी खेल के मजे लेते लेते हुवे कह रहे हैं
अवश्यं चापि लोकेषु सीता पावनमर्हति ⁠। दीर्घकालोषिता हीयं रावणान्तःपुरे शुभा ⁠।⁠।⁠१३⁠।⁠। ‘भगवन्! लोगोंमें सीताजीकी पवित्रताका विश्वास दिलानेके लिये इनकी यह शुद्धिविषयक परीक्षा आवश्यक थी; क्योंकि शुभलक्षणा सीताको विवश होकर दीर्घकालतक रावणके अन्तःपुरमें रहना पड़ा है ⁠।⁠।⁠१३⁠।⁠। बालिशो बत कामात्मा रामो दशरथात्मजः ⁠। इति वक्ष्यति मां लोको जानकीमविशोध्य हि ⁠।⁠।⁠१४⁠।⁠। ‘यदि मैं जनकनन्दिनीकी शुद्धिके विषयमें परीक्षा न करता तो लोग यही कहते कि दशरथपुत्र राम बड़ा ही मूर्ख और कामी है ⁠।⁠।⁠१४⁠।⁠।

अनन्यहृदयां सीतां मच्चित्तपरिरक्षिणीम् ⁠। अहमप्यवगच्छामि मैथिलीं जनकात्मजाम् ⁠।⁠।⁠१५⁠।⁠। ‘यह बात मैं भी जानता हूँ कि मिथिलेशनन्दिनी जनककुमारी सीताका हृदय सदा मुझमें ही लगा रहता है। मुझसे कभीअलग नहीं होता। ये सदा मेरा ही मन रखतीं—मेरी इच्छाके अनुसार चलती हैं ⁠।⁠।⁠१५⁠।⁠। इमामपि विशालाक्षीं रक्षितां स्वेन तेजसा ⁠। रावणो नातिवर्तेत वेलामिव महोदधिः ⁠।⁠।⁠१६⁠।⁠। ‘मुझे यह भी विश्वास है कि जैसे महासागर अपनी तटभूमिको नहीं लाँघ सकता, उसी प्रकार रावण अपने ही तेजसे सुरक्षित इन विशाललोचना सीतापर अत्याचार नहीं कर सकता था ⁠।⁠।⁠१६⁠।⁠। प्रत्ययार्थं तु लोकानां त्रयाणां सत्यसंश्रयः ⁠। उपेक्षे चापि वैदेहीं प्रविशन्तीं हुताशनम् ⁠।⁠।⁠१७⁠।⁠। ‘तथापि तीनों लोकोंके प्राणियोंके मनमें विश्वास दिलानेके लिये एकमात्र सत्यका सहारा लेकर मैंने अग्निमें प्रवेश करती हुईविदेहकुमारी सीताको रोकनेकी चेष्टा नहीं की ⁠।⁠।⁠१७⁠।⁠। न हि शक्तः सुदुष्टात्मा मनसापि हि मैथिलीम् ⁠। प्रधर्षयितुमप्राप्यां दीप्तामग्निशिखामिव ⁠।⁠।⁠१८⁠।⁠। ‘मिथिलेशकुमारी सीता प्रज्वलित अग्निशिखाके समान दुर्धर्ष तथा दूसरेके लिये अलभ्य है। दुष्टात्मा रावण मनके द्वारा भी इनपर अत्याचार करनेमें समर्थ नहीं हो सकता था ⁠।⁠।⁠ नेयमर्हति वैक्लव्यं रावणान्तःपुरे सती ⁠। अनन्या हि मया सीता भास्करस्य प्रभा यथा ⁠।⁠।⁠१९⁠।⁠। ‘ये सती-साध्वी देवी रावणके अन्तःपुरमें रहकर भी व्याकुलता या घबराहटमें नहीं पड़ सकती थीं; क्योंकि ये मुझसे उसी तरह अभिन्न हैं, जैसे सूर्यदेवसे उनकी प्रभा ⁠।⁠।⁠ विशुद्धा त्रिषु लोकेषु मैथिली जनकात्मजा ⁠। न विहातुं मया शक्या कीर्तिरात्मवता यथा ⁠।⁠।⁠२०⁠।⁠। ‘मिथिलेशकुमारी जानकी तीनों लोकोंमें परम पवित्र हैं। जैसे मनस्वी पुरुष कीर्तिका त्याग नहीं कर सकता, उसी तरह मैं भी इन्हें नहीं छोड़ सकता ⁠।⁠।⁠२०⁠।⁠।
इत्येवमुक्त्वा विजयी महाबलः प्रशस्यमानः स्वकृतेन कर्मणा ⁠। समेत्य रामः प्रियया महायशाः सुखं सुखार्होऽनुबभूव राघवः ⁠।⁠।⁠२२⁠।⁠। ऐसा कहकर अपने किये हुए पराक्रमसे प्रशंसित होनेवाले महाबली, महायशस्वी, विजयी वीर रघुकुलनन्दन श्रीराम अपनी प्रिया सीतासे मिले और मिलकर बड़े सुखका अनुभव करने लगे; क्योंकि वे सुख भोगनेके ही योग्य हैं ⁠।⁠।⁠२२⁠।⁠।

क्या खेल किया आपने।
पर जो
दुष्ट है
कामी है
पापी है
विषयों में डूबे है
अनाचारी कदाचारी है
मद्यप है वो आपको कैसे जान सकते है प्रभो?
आप तो वैराग्य की अग्नि में परीक्षा देके भक्ति स्वरूपणी सीता मां के समान निष्कलंक निष्छल पवित्र राम जी के हृदय में ही निवास करने योग्य हो।

निरमल मन जन सो मोहिं पावा। मोहिं कपट छल छिद्र न भावा।

श्री रामचरितमानस की यह चौपाई यह संकेत कर रहा है, कि ईश्वर या उनकी भक्ति प्राप्त करने के लिए मन की निर्मलता परमावश्यक है। ईश्वर को छल- कपट आदि दोष नहीं भाता क्योंकि जो सर्वज्ञ है उससे छिपाव अर्थात अभी तो आप ईश्वर को ईश्वर समझ ही नहीं रहे। 

खैर।
जय जय श्री राम🙏🙏🙏