Thursday, December 15, 2011

बहुत समय से ना बही काव्य धारा।
लगा जैसे जीवन चक्र ठहर सा गया।।
उन मोहक यादोँ के भंवर जाल का।
बंधक मन तंहा बैचेन खुद अनजाना।।
उम्मीद की आखिरी सांस तक जिंदा।
शायद देखेँ मुड़कर वो,कब तक करेगी युँ शर्मिँदा।।
तुम तो आगे बढ़ चुकेँ मीलोँ।
रह गये हम अकेलेँ लेकर ख्वाबोँ के टिलोँ।।
दर्द है बहुत पर उसका अहसास नहीँ।
पीते है बहुत फिर भी प्यास नहीँ।।
अपने मेँ ही खोये खोये रहता।
लोग कहते गंभीर अध्येता।।
जानते है हम दिल का मामला।
ना आंसु ना जख्म ना खून धड़कता।।
आ जाओ काव्य धारा मत सुखाओ।
आवो ,समय के क्षितिज पर मत जाओ।।
आवो शाश्वत प्रेम खातिर।
आवो जीवन महक खातिर।।
तुम आवोगे तब बंसत छायेगा।
मयुर मन मधुबन मेँ सामगान गाएगा।।