Thursday, June 1, 2017
अथातो ब्रह्म जिज्ञासा ............................
मानव मात्र को उसकी जीवन्तता का दर्शन कराने आज से हजारो सालो पूर्व हमारे देश में वैज्ञानिक सम्मत एवं श्रेष्ट मानवीय मूल्यों से जीवंत सैकड़ो खोजें हुई थी मानवता उन खोजो से आज भी न केवल प्रभावित है बल्कि उस को आगे बढा रही है हिन्दू ने उन सब मौलिक एवं मुलभुत दर्शन को पेटेंट करवाने का न केवल विचार ही नही ही किया बल्कि उसे बहुत ही अनुचित एवं मानवता विरोधी माना था इस कारण आज अनेक लोग शिकायत करते दीखते है कि हम लोगों ने क्यों नही कुछ खोजा या अगर खोजा तो उसका पेटंट क्यों नही करवाया.वैसा न हमारा कोई उद्देश्य था न ही उसमे कोई सार |
हमारा इस लेख को लिखने का उद्देश्य केवल महान परम्परा का हल्का सा झलक दिखाना है जिसकी हल्की सी हवा से आइन्स्टीन से लेके स्टीव जॉब्स तक के लोग पगला गये थे ये वो दर्शन है जो मनुष्य को उत्तरोतर प्रगति की और ले जाता है स्वामी विवेकानंद इस पर कहते है कि एक बार ध्यान और एकाग्रता सिद्ध हो जाने पर उसको किसी भी विषय पर केन्द्रित किया जा सकता है वैदिक ऋषि बुला रहा है सबको अपनी ओर बुला रहा है उसके दोनों हाथ ऊपर उठे है वो बड़े आत्म विश्वास से कह रहा है कि उसने उस सत्य कोजान लिया जिसको जानने के बाद कुछ भी जानना बाकी नही रहता है |
मानव का जन्म होता है और उसकी मृत्यु हो जाती है ये दो अकाट्य सत्य दुनिया का हर मानव निरंतर देखता है उसके मन मस्तिष्क में इसका रहस्य जानने की इच्छा शताब्दियों से ही नही बल्कि उसके भी परे के कालखंड में रही है क्यों मैं पैदा हुवा ??वो क्या मूलभुत गुण है जिसके चलते मैं न केवल नाच रहा हूँ बल्कि सारा जगत ही नाच रहा है ??ये नटन का कारण क्या है??क्यों इस जगत में इतनी पीड़ा दुःख है ??मैं सुनता हूँ मैं देखता हूँ में चलता हूँ मैं व्यवहार करता हूँ उसका कारण क्या है ??परस्पर मानवों के आपसी व्यवहार में कौन तत्व कब प्रधान है ???ये सब धोखा झूठ और हिंसा क्यों है??प्रश्न इतने है कि उसका अंत ही नजर नही आता है और उसका उत्तर देने का प्रयास समस्या को ओर जटिल बना देता है सारा हमारा अभी तक का आधुनिक और प्राचीन ज्ञान विज्ञान उन सब प्रश्नों के उत्तर देने का तरीका खोजना ही है और जैसे जैसे हम प्रकृति के इन आधारभूत प्रश्नों के उत्तर देते जाते है प्रकृति नये नये प्रश्न भेज देती है आधुनिक पश्चिमी बुद्धिजीवी इसका उत्तर भौतिकवाद से देते है वैदिक ऋषि उसको माता मान विन्रमता से इस रहस्य को खोलने का आग्रह करता है ये ही कारण है कि प्राचीन हिन्दू ऋषि चाहे राजनीती शास्त्र लिखेगा चाहे नीति शास्त्र चाहे न्याय चाहे वास्तु चाहे ज्योतिष चाहे खनिज चाहे विमान शास्त्र लिखेगा चाहे कामसूत्र लिखेगा चाहे जीवन को मुक्ति देने वाले शास्त्र हर एक मैं पहले श्लोक पहले पद छंद में उस परमामा को उस प्रकृति को उस महत उस पुरुष उस माँ की प्राथना है उसने निवेदन है अपना रहस्य खोल देने का ये ही हमारे दर्शन का आधार है कि जिसको जानना है उससे शरणागति को स्वीकार करना है जानना केवल ईश्वर को है ये सारा जगत उस ईश्वर का ही तो स्मित हास्य है न ???
सब बातो की एक बात कि "मैं कौन हूँ ?"
इस मैं को जानने में ही सार हिन्दू चिंतन लगा है और न केवल आज से बल्कि जब से मानव ने जन्म लिया तब से |हमारी परम्परा इसमें अपना महत्व पूर्ण योगदान देती है ये एक इसी यात्रा है जो प्रत्येक मानव को अकेले शुरू करनी है अकेले ही समाप्त करनी है उस यात्रा के मार्ग में पाथेय के रूप में हमको भगवान ने वेद दिया है उसके ज्ञान को ह्र्द्यगम करके उस परम सत्य को जन सकते है लेकिन अगर वैदिक शास्त्र की बात करे तो इतना विशाल है कि एक जन्म भी कम पड जाता है तो अल्प समायावधि में हमारा चिन्तन क्या बात है ?इस लिए पूज्य गुरुओ ने उसमे से निकाल कर प्रस्थान त्रय का उपदेश दिया वो है
1 उपनिषद जो वेद का भाग है
२ श्रीमद भगवत गीता
३ ब्रह्मसूत्र |
आज थोड़ा सा हम उस शास्त्र के बारे बतायेंगे जो कम ज्ञात है उसका नाम है ब्रह्म सूत्र |सूत्र रूप में व्याखित् ये शास्त्र वेदान्त परम्परा में अत्यंत सम्मानीय स्थान रखता है इसका इतना मान है की इसपर शंकर रामानुज वल्लभ समेत करीब ४० वेदांत आचार्यो ने भाष्य लिखा है |
इसका पहला सूत्र है "अथातो ब्रह्म जिज्ञासा |"
वेदान्त परम्परा में अधिकारी पुरुष की बात बार बार आती है उस पुरुष के लक्ष्ण क्या है ?किन गुणों के होने से व्यक्ति अधिकारिहोता है जिसके तदुपरांत ब्रह्म जिज्ञासा की जाती है ?क्या पुरुष शब्द का तात्पर्य केवल male ब्राह्मण से है ?बहुत से प्रश्न है जो हमारे मन नही तो हमारे दर्शन की आलोचना वालो के मन में उठते है उसमे जो पहली बात समझने की है पुरुष शब्दका शाब्दिक अर्थ ही ये है कि शरीर रूपी में पुर में रहनेवाला |
अव विचार करने का है कि इस शरीर रूपी पुर में अंगुष्ठ स्थान पर कौन रहता है ?
ईश्वरसर्व भूतानाम हृदये तिष्टति अर्जुन:|
ये इश्वर की आज्ञा है कि सर्व भूतो में ईश्वर रहता है |
वैदिक आज्ञा है ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् ।
अत: पुरुष शब्द का अर्थ यहाँ स्थूल रूप से मानव से न की किसी एक वर्ण या जाती से |
अब ये प्रश्न उठता है कि वेदान्त परम्परा में अधिकारी अनाधिकारी का विधान क्यों किया गया ?क्यों नहीं सबको वेदांत श्रवण करने को कहा गया ?
हम इसे आधुनिक रूप से विचार करे एक बार|मान लिजिय कोई अक्षु चिकित्सक होना चाहता है उसे क्या क्या करना पड़ेगा?
अक्षर ज्ञान से लेके उसे निर्धारित सभी योग्यता को पूर्ण करना होगा उसके बाद परीक्षा देके चिकित्सक बनने के बाद अक्षु चिकित्सा में विशेष अध्ययन करना होगा उसके बाद ही वो एक ये बन सकता है इसी तरह एक अभियंता वकील सीए आदि आदि सभी आधुनिक योग्यता अर्जित करनी पडती है फिर ये तो मुक्ति का मग है ब्रह्म विद्या है उसके लिए तो विशेष आयोजन करना होगा |
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