Saturday, August 27, 2011

मेरी एक कविता जो मेने एक निजी कंपनी छोड़ते समय लिखी थी ......

क्या जीवन ! यंत्रवत चलते रहना???
भोतिकी में दिन भर खपना,रात्रि में करना उसका चिंतन!!
नश्वर-नस्ट होने वाली वस्तु के पीछे घुमते जाना यु ही उम्र भर|
अंत समय में कहना ,गर्व से छोड़ा मेने पीछे अपने ,बंगा पुत्र-परिवार||
जीवंत-चेतन्य खोजता जड़ को,महामाया के चक्र ,पिसना हें जीवन?
या शांति पाने जाना मंदिर बाबा का,लोटकर लगाना फिर काम यंत्रणा का??

शुचिता,सात्विकता विनम्रता नहीं |
आडम्बर भ्रष्टता विकृति जीवन ||

नवीनता के लिए छोड़े जो संस्कृत |
समाज जीवन हो केसे सुसंस्कृत ||

धन धन धन पाना जहा हें सुख |
ए चाहे कही सधन हो तो कहे का दुःख ||

धन लेन की जुगत में,चिंतन को कुंद किया
सत्य का दम तोड़,असत्य आचरण किया||

नेतिक मूल्यों से पतित पूरा राष्ट्र जा रहा रसातल,
कह रहा इसको देखो हमारा Developments
professionalism कर रहा दुषित मन जीवन भाषा,
तोल रहा अपना ,उन्नत हुवा जीवन स्तर||

वस्तुए करती सभ्यता को उन्नत,तो भगवान राम नहीं रावण होता|
जय श्री कृष्ण नहीं कंस जय गान होता||

जीवन नहीं मादकता में डूबना|
जीवन नहीं कामोपभोग मापना||
जीवन नहीं संगृह करना धन को|
जीवन नहीं बढाना मात्र परिवार को अपणे||

जीवन तो चलना संवित पथ पर,जीवन चलना संघ मार्ग पर,
जीवन तो जीना ध्येय अनुसार,ज्ञान के मार्ग पर||
प्रकाश के आंगन पर चेतन्य्वत निरंतर

भा" में रत "रत" भारत....................

Sunday, August 14, 2011

जाती गतांग से आगे...................

3।जाती क्या है??कैसे ये उत्पन्न हुई ???क्या महत्व है इसका??क्या गुण अवगुण है इसके??कैसे ये शोषण का हथियार बनी?? इन सबको को जानने से पहले ये जानना पड़ेगा की ये पैदा कहा से हुयी है इस के पैदा होने के भी अनेक कारण दिये गए है जो विदेशियों व भारतीय विद्धवनों ने दिये है उनको नीचे प्रस्तुत करता हूँ
A।परंपरागत {traditional} सिद्धांत –खास बात यह है की वर्ण और जाती को एक मानकर ही यह सिद्धांत दिया गया है जिसके अनुसार उस अंगो से जाती की उततापति हुयी है जिसका खंडन मेने पहले ही कर दिया है|
B राजनीतिक सिद्धांत{थियरि ऑफ पॉलिटिकल }- पहले मैं इसके बारे में बताता हूँ-प्रांभिक यूरोपियन विधवानों ने जाती प्रथा को ब्रहमनों द्वारा आयोजित एक चतुर राजनेतीक योजना का रूप बताया है|इन मे “अबे डुबायस{abb dubois}” का नाम प्रमुख है आप कहते है की ब्राह्मणों ने अपनी प्रभुता बनाए रखने के लिए धर्म का सहारा लिया और एसी व्यवस्था बनाई जिसमे अपना स्थान सबसे ऊपर रखा और उन लोगो को द्वितीय स्थान दिया जोकि अपने बाहुबल से ब्रहनों के स्वार्थ की रक्षा कर सके याने क्षत्रिय |विदेशी इबेटसन{ibetson} और डॉक्टर घूरिए{ghurye} ने भी इनका समर्थन किया है
अब इसकी काट में-जाती एक सामाजिक संस्था है व कम से कम भारत मे 2000 साल से अस्तित्व में है अत: यह कहना की 2000 साल से भारत एक कृतिम आवरण को ढ़ोह रहा है मूर्खता के अलावा क्या होगी??एक कहावत है की आप सबको एक समय के लिए मूर्ख बना सकते हो कुछ को सब समय के लिए मूर्ख बना सकते हो पर सबको सब समय के लिए मूर्ख नहीं बना सकते इस कारण इस सामाजिक ढ़ाचे को खड़ा करना व इतने लंबे समय तक चलाये रखना व सारे समाज का इसको पालन करना उस सबका उत्त्र्दायित्व ब्राह्मण के कंधो पर डाल कर अंग्रेज़ ये साबित करना चाहते थे की सारी कुरुती व सारी गरीबी छूआ छूत आदि का कारण ब्राह्मण है इस कारण उसे प्रताड़ित करने मे हमारा याने अंग्रेज़ो का सहयोग दो ,पर एसा करना अंग्रेज़ क्यो चाहते थे??तो कारण ध्यान मे आता है ब्राह्मणों ने कभी भी अंग्रेज़ो की प्रतिष्ठा को हिन्दु समाज ही नहीं सारे भारतीय समाज मे नहीं बढ़ने दिया सभी उनसे घृणा करते थे एक तो अंग्रेज़ो के पाप भी बहुत थे दूसरे ब्राह्मण लोग हमेशा हिन्दु जनता को अंग्रेज़ो के खिलाफ भड़काते रहते थे उनके भारत में राज को चुनोती देते थे ये मात्र एक संयोग नहीं है की वसुदेव बलवंत फडके से लेकर मंगल पांडे या तिलक महाराज तक सारे के सारे जातिगत ब्राह्मण थे और इनकी बात सारा समाज सुनता था जब तक अंग्रेज़ो ने मैकाले के माध्यम से एक पीढ़ी की पीढ़ी नहीं तैयार कर ली तब तक ये अंग्रेज़ भारत मे बहुत ही घृणा से देखे जाने लगे थे |वास्तव में किसी भी सामाजिक प्रथा या व्यवस्था को चतुराई से या कृत्रिम रूप से समाज पर नहीं लादा जा सकता है |
3 धार्मिक सिद्धान्त {religious theory}- होकार्ट व सेनार्ट नाम के विदेशियों का यह सिद्धान्त था जिसके अनुसार धार्मिक बलि की परंपरा व भोजन संबधि आदतों प्रतिबंधों के कारण जाती की उत्पत्ति हुयी थी |पर ये कितना बकवास है की खुद विदेशियों जैसे डालमेन ने इसका विरोध किया व इसे अवैज्ञानिक तक कह दिया भला एक सामाजिक ढ़ाचे को खड़ा करने मे भोजन का ही योगदान होगा क्या??
4।व्यावसायिक सिद्धान्त {occupation theory}-पेशो के आधार पर जातिप्रथा की उत्पत्ति की व्याख्या नेसफील्ड ने प्रस्तुत की थी |आप लिखते है {function and function alone is responsible for the origin of cast system-nesfield.brief view of the cast system.p-7}विभिन्न जातियो मे जो भेद हमे दिखाई देता है वो उनके पेशे के कारण ही है पेशो की उचता व नीचता या अच्छाई बुराई के अनुसार ही जाती प्रथा के उच्च नीच का संस्तरण हुवा है इसमे धर्म का कोई महत्व नहीं है ना शारीरिक लक्षणों का महत्व है |आपके विरोधी हट्टन व डीएन मज़मूदार है जो यह कहते है की खेती करने वाले सारे एक जाती के नहीं है व ब्राह्मण व शूद्र की बनावट मे भी अंतर है पर मेरे विचार से अंग्रेज़ो व मुगलो ने बहुत बड़े समाज को जबर्दस्ती खेती के लिए बाध्य किया था जबकि प्रत्येक का अलग अलग व्यवसाय था जिसकी योजना बद्ध तरीके से हत्या कर पूरे के पूरे समाज को खेती पर निर्भर करवाया गया |
5 उद्विकासीय सिद्धान्त {evolution theory}-डेनजिंल इबेटसन ने दिया था इसका कारण था आर्थिक संघ |आर्थिक वर्ग से आथिक संघ बने फिर संघ से जाती का विकास हुवा ना वर्ण कारण था ना धर्म ना नस्ल |
6।प्रजातीय सिद्धान्त {racial theory}-सर हर्बर्ट रिजले ने सव्र्प्रथम इस सिद्धान्त को दिया था उसके बाद मैकाइवर,मैक्स वेबर,क्रौबर,भारतीय सर एस सी राय,एन के दत्ता घूरिए मजमूदार ने भी पुर ज़ोर से समर्थन किया |आर्य द्रविड,अनुलोम प्रतिलोम विवाह ,आर्य आक्रमण व स्त्रियो की कमी,द्रविड जीवन की उन्न्त अवस्था मातृसत्तात्मक समाज ,प्रजातियों में संघर्ष,ब्राह्मणों के कारण आदि कारण दिये गए है
|बिना किसी बड़े नाम को लिए हुवे मैं कह सकता हूँ पूरी तरीके से बकवास क्योकि भौगलिक समानता पर ज्यादा प्रजातीय या नस्लीय भेद नहीं होता है व डीएनए पद्धति पर शोध के बाद यह प्रमाणित हो चुका है की कम से कम 30 हजार साल से भारत में एक समाज रह रहा है जबकि ये सारा पूर्वाग्रह केवल 1500 ईसा पूर्व तक का ही है फिर द्रविड़ तो स्थान वाचक है व आर्य एक विशेषण शव्द |
7 आदिम संस्कृति का सिद्धान्त {theory of primitive culture}-आर्यों के आने से पहले ही कबीले जो जाती के रूप मे थे जो यह मानते थे की दूसरों को छूने से बीमार आदि हो जाते है हट्ट्न उसे “माना” कहते है जो आलोकिक शक्ति है जो प्रत्येक चीज मे पायी जाती है जो दूसरों से छूने या स्पर्श करने या संबध बनाने पर अच्छा या बुरा प्रभाव डालती है |
आप खुद सोचिए की ये कोई तर्क है??एसा लगता है हालीवुड फिल्म अवतार का सीन है ये |
8। सांस्कृतिक एकीकन का भाव {theory ऑफ culture integration}-राय बहादुर शरत चंद्र राय ने दिया था भारत की विभिन्न प्रजातियों की सांस्कृतिक विशेषताओ के मिलन और अंत: क्रिया का फल है जातिया |
मेरे इस संक्षेप मे जातियो के सिद्धान्त को बताने का प्रयोजन केवल इतना सा था की मैं आपको बता सकु की अंग्रेज़ या दूसरे विदेशी और उनके भारतीय चेले क्या क्या सोचते थे आप खुद सोच सकते है की एक अवैज्ञानिक तरीके से जातियो की मनमानी व्याख्या कर किस तरह ब्राह्मणो के माथे मढ़ने का सफलता पूर्वक प्रयास किया गया है जबकि निष्पक्ष विदधानों ने स्पष्टतया इसे पेशे व आर्थिक संघो से उत्पन्न माना है अब भी अगर कोई नस्ल वादी दृष्टि से सोचे तो क्या उसे वैज्ञानिक सोच का कहेंगे??सत्य बात तो ये है की जाती व्यवस्था हर जगह है वहा भी है जहा ब्राह्मण है वहा भी है जहा वो नहीं है| शोषण वहा भी है जहा ब्राह्मण है और वहा भी है जहा ब्राह्मण नहीं है |कमजोर को सब सताते है पालीवालों के एक गाँव केवल इस लिए उजाड़ गया था की उस राजी का राजा अनैतिक मांग कर रहा था जिसे पूरा करना पालीवालो को अपमान जनक लगा था इसी तरह हर कमजोर व्यक्ति जाती समाज शोषण का शिकार बनता है जहा जो जाती ताकतवर होती है वहा वो अपनी प्रभु सत्ता चलना चाहती है व कमजोरों का शोषण भी करती है भारत के लोगो ने बहुत पहले इस बात का हल निकाल दिया था व स्पष्ट रूप से सभी को सम्मान्न देने का आगृह किया जाता था |
जारी है ............................

जाती गतांग से आगे...................

3।जाती क्या है??कैसे ये उत्पन्न हुई ???क्या महत्व है इसका??क्या गुण अवगुण है इसके??कैसे ये शोषण का हथियार बनी?? इन सबको को जानने से पहले ये जानना पड़ेगा की ये पैदा कहा से हुयी है इस के पैदा होने के भी अनेक कारण दिये गए है जो विदेशियों व भारतीय विद्धवनों ने दिये है उनको नीचे प्रस्तुत करता हूँ
A।परंपरागत {traditional} सिद्धांत –खास बात यह है की वर्ण और जाती को एक मानकर ही यह सिद्धांत दिया गया है जिसके अनुसार उस अंगो से जाती की उततापति हुयी है जिसका खंडन मेने पहले ही कर दिया है|
B राजनीतिक सिद्धांत{थियरि ऑफ पॉलिटिकल }- पहले मैं इसके बारे में बताता हूँ-प्रांभिक यूरोपियन विधवानों ने जाती प्रथा को ब्रहमनों द्वारा आयोजित एक चतुर राजनेतीक योजना का रूप बताया है|इन मे “अबे डुबायस{abb dubois}” का नाम प्रमुख है आप कहते है की ब्राह्मणों ने अपनी प्रभुता बनाए रखने के लिए धर्म का सहारा लिया और एसी व्यवस्था बनाई जिसमे अपना स्थान सबसे ऊपर रखा और उन लोगो को द्वितीय स्थान दिया जोकि अपने बाहुबल से ब्रहनों के स्वार्थ की रक्षा कर सके याने क्षत्रिय |विदेशी इबेटसन{ibetson} और डॉक्टर घूरिए{ghurye} ने भी इनका समर्थन किया है
अब इसकी काट में-जाती एक सामाजिक संस्था है व कम से कम भारत मे 2000 साल से अस्तित्व में है अत: यह कहना की 2000 साल से भारत एक कृतिम आवरण को ढ़ोह रहा है मूर्खता के अलावा क्या होगी??एक कहावत है की आप सबको एक समय के लिए मूर्ख बना सकते हो कुछ को सब समय के लिए मूर्ख बना सकते हो पर सबको सब समय के लिए मूर्ख नहीं बना सकते इस कारण इस सामाजिक ढ़ाचे को खड़ा करना व इतने लंबे समय तक चलाये रखना व सारे समाज का इसको पालन करना उस सबका उत्त्र्दायित्व ब्राह्मण के कंधो पर डाल कर अंग्रेज़ ये साबित करना चाहते थे की सारी कुरुती व सारी गरीबी छूआ छूत आदि का कारण ब्राह्मण है इस कारण उसे प्रताड़ित करने मे हमारा याने अंग्रेज़ो का सहयोग दो ,पर एसा करना अंग्रेज़ क्यो चाहते थे??तो कारण ध्यान मे आता है ब्राह्मणों ने कभी भी अंग्रेज़ो की प्रतिष्ठा को हिन्दु समाज ही नहीं सारे भारतीय समाज मे नहीं बढ़ने दिया सभी उनसे घृणा करते थे एक तो अंग्रेज़ो के पाप भी बहुत थे दूसरे ब्राह्मण लोग हमेशा हिन्दु जनता को अंग्रेज़ो के खिलाफ भड़काते रहते थे उनके भारत में राज को चुनोती देते थे ये मात्र एक संयोग नहीं है की वसुदेव बलवंत फडके से लेकर मंगल पांडे या तिलक महाराज तक सारे के सारे जातिगत ब्राह्मण थे और इनकी बात सारा समाज सुनता था जब तक अंग्रेज़ो ने मैकाले के माध्यम से एक पीढ़ी की पीढ़ी नहीं तैयार कर ली तब तक ये अंग्रेज़ भारत मे बहुत ही घृणा से देखे जाने लगे थे |वास्तव में किसी भी सामाजिक प्रथा या व्यवस्था को चतुराई से या कृत्रिम रूप से समाज पर नहीं लादा जा सकता है |
3 धार्मिक सिद्धान्त {religious theory}- होकार्ट व सेनार्ट नाम के विदेशियों का यह सिद्धान्त था जिसके अनुसार धार्मिक बलि की परंपरा व भोजन संबधि आदतों प्रतिबंधों के कारण जाती की उत्पत्ति हुयी थी |पर ये कितना बकवास है की खुद विदेशियों जैसे डालमेन ने इसका विरोध किया व इसे अवैज्ञानिक तक कह दिया भला एक सामाजिक ढ़ाचे को खड़ा करने मे भोजन का ही योगदान होगा क्या??
4।व्यावसायिक सिद्धान्त {occupation theory}-पेशो के आधार पर जातिप्रथा की उत्पत्ति की व्याख्या नेसफील्ड ने प्रस्तुत की थी |आप लिखते है {function and function alone is responsible for the origin of cast system-nesfield.brief view of the cast system.p-7}विभिन्न जातियो मे जो भेद हमे दिखाई देता है वो उनके पेशे के कारण ही है पेशो की उचता व नीचता या अच्छाई बुराई के अनुसार ही जाती प्रथा के उच्च नीच का संस्तरण हुवा है इसमे धर्म का कोई महत्व नहीं है ना शारीरिक लक्षणों का महत्व है |आपके विरोधी हट्टन व डीएन मज़मूदार है जो यह कहते है की खेती करने वाले सारे एक जाती के नहीं है व ब्राह्मण व शूद्र की बनावट मे भी अंतर है पर मेरे विचार से अंग्रेज़ो व मुगलो ने बहुत बड़े समाज को जबर्दस्ती खेती के लिए बाध्य किया था जबकि प्रत्येक का अलग अलग व्यवसाय था जिसकी योजना बद्ध तरीके से हत्या कर पूरे के पूरे समाज को खेती पर निर्भर करवाया गया |
5 उद्विकासीय सिद्धान्त {evolution theory}-डेनजिंल इबेटसन ने दिया था इसका कारण था आर्थिक संघ |आर्थिक वर्ग से आथिक संघ बने फिर संघ से जाती का विकास हुवा ना वर्ण कारण था ना धर्म ना नस्ल |
6।प्रजातीय सिद्धान्त {racial theory}-सर हर्बर्ट रिजले ने सव्र्प्रथम इस सिद्धान्त को दिया था उसके बाद मैकाइवर,मैक्स वेबर,क्रौबर,भारतीय सर एस सी राय,एन के दत्ता घूरिए मजमूदार ने भी पुर ज़ोर से समर्थन किया |आर्य द्रविड,अनुलोम प्रतिलोम विवाह ,आर्य आक्रमण व स्त्रियो की कमी,द्रविड जीवन की उन्न्त अवस्था मातृसत्तात्मक समाज ,प्रजातियों में संघर्ष,ब्राह्मणों के कारण आदि कारण दिये गए है
|बिना किसी बड़े नाम को लिए हुवे मैं कह सकता हूँ पूरी तरीके से बकवास क्योकि भौगलिक समानता पर ज्यादा प्रजातीय या नस्लीय भेद नहीं होता है व डीएनए पद्धति पर शोध के बाद यह प्रमाणित हो चुका है की कम से कम 30 हजार साल से भारत में एक समाज रह रहा है जबकि ये सारा पूर्वाग्रह केवल 1500 ईसा पूर्व तक का ही है फिर द्रविड़ तो स्थान वाचक है व आर्य एक विशेषण शव्द |
7 आदिम संस्कृति का सिद्धान्त {theory of primitive culture}-आर्यों के आने से पहले ही कबीले जो जाती के रूप मे थे जो यह मानते थे की दूसरों को छूने से बीमार आदि हो जाते है हट्ट्न उसे “माना” कहते है जो आलोकिक शक्ति है जो प्रत्येक चीज मे पायी जाती है जो दूसरों से छूने या स्पर्श करने या संबध बनाने पर अच्छा या बुरा प्रभाव डालती है |
आप खुद सोचिए की ये कोई तर्क है??एसा लगता है हालीवुड फिल्म अवतार का सीन है ये |
8। सांस्कृतिक एकीकन का भाव {theory ऑफ culture integration}-राय बहादुर शरत चंद्र राय ने दिया था भारत की विभिन्न प्रजातियों की सांस्कृतिक विशेषताओ के मिलन और अंत: क्रिया का फल है जातिया |
मेरे इस संक्षेप मे जातियो के सिद्धान्त को बताने का प्रयोजन केवल इतना सा था की मैं आपको बता सकु की अंग्रेज़ या दूसरे विदेशी और उनके भारतीय चेले क्या क्या सोचते थे आप खुद सोच सकते है की एक अवैज्ञानिक तरीके से जातियो की मनमानी व्याख्या कर किस तरह ब्राह्मणो के माथे मढ़ने का सफलता पूर्वक प्रयास किया गया है जबकि निष्पक्ष विदधानों ने स्पष्टतया इसे पेशे व आर्थिक संघो से उत्पन्न माना है अब भी अगर कोई नस्ल वादी दृष्टि से सोचे तो क्या उसे वैज्ञानिक सोच का कहेंगे??सत्य बात तो ये है की जाती व्यवस्था हर जगह है वहा भी है जहा ब्राह्मण है वहा भी है जहा वो नहीं है| शोषण वहा भी है जहा ब्राह्मण है और वहा भी है जहा ब्राह्मण नहीं है |कमजोर को सब सताते है पालीवालों के एक गाँव केवल इस लिए उजाड़ गया था की उस राजी का राजा अनैतिक मांग कर रहा था जिसे पूरा करना पालीवालो को अपमान जनक लगा था इसी तरह हर कमजोर व्यक्ति जाती समाज शोषण का शिकार बनता है जहा जो जाती ताकतवर होती है वहा वो अपनी प्रभु सत्ता चलना चाहती है व कमजोरों का शोषण भी करती है भारत के लोगो ने बहुत पहले इस बात का हल निकाल दिया था व स्पष्ट रूप से सभी को सम्मान्न देने का आगृह किया जाता था |
जारी है ............................

Saturday, August 13, 2011

जाती वर्ण वर्णाश्रम व आरक्षण

“जाती ,वर्ण,आश्रम एवं आरक्षण”

जातिगत दुकानदार अचानक सक्रिय हो गए है वैसे भी आज का माहौल है की यत्र तत्र जाती और आरक्षण की चरचा होती रहती है हर नयी जाती अपने को आरक्षण पाने के योग्य बनाने पर तुली रहती है तो हर नयी जाती आरक्षण का विरोध करती नजर आती है इन सबसे ज्यादा फायदा उन दुकान दारो का भला होता है जो जातिगत रोटिया सेकते है व भविष्य मे अपने लिए राजनीति का डगर फीक्स कर देते है मेरे इस लेख को लिखने का उद्धेशय जाती वर्ण फिर वर्णाश्रम फिर आरक्षण पर मेरे विचार व अनेक चिंतको के विचारो का संकलन कर मेरे विचार को पुष्ट करना है और बिना किसी लग लपेट के मैं कहता हूँ की किसी भी प्रकार का आरक्षण इसी क्षण से समाप्त होना ही समाज हित में है जाहीर है अपने लेख से पहले ही मेने अपने विचार स्पष्ट कर दिये तो अगली पंक्तियो मे मैं उसके पक्ष मे विभिन्न प्रकार के तर्क व तथ्य व उध्ध्रन देने का प्रयास करूंगा |
1॰ ये सारा का सारा झमेला या यूं कहे आखाडा जिस एक सूक्त से प्रारम्भ होता है उसका नाम है पुरुष सूक्त ,पुरुष सूक्त अत्यंत पवित्र समझा जाता है और मैं भी उसे बहुत पवित्र मानता हूँ उसके उच्चारण के कम्पन्न से होने वाले भीतरी परिवर्तन को मेने अनेकों बार अनुभव किया है अनुभव किसी को करना हो तो वो इसे किसी जानकार से सीख कर उस स्वर व पवित्र मन से उच्चरित करें व असर को खुद अनुभूत करे खैर मूल बात पर आते है एसे कहा जाता है की जातिगत भेदभाव का आरंभ पुरुष सूक्त से हुवा है और उसके प्रमाण मे स॒हस्र॑ शीर्षा॒ पुरु॑षः । स॒ह॒स्रा॒क्षः सहस्र॑पात् । स भूमिं॑ वि॒श्वतो॑ वृ॒त्वा । अत्य॒तिष्ठद्दशांगु॒लम् । पुरु॑ष ए॒वेदग्ं सर्वम्॓ व आगे के “ब्राह्मणो मुखमसीत से लेकर शूद्रो अजायत “ का विवरण दिया जाता है ,पर जब हम इस सूक्त को पूरा का पूरा पढ़ते है तब ये भान होता है की इसमे जिन पुरुष का वर्णन है वो को शशिर धारी नहीं है न ही उसकी कोई देह है न लोकिक न परमार्थिक,फिर क्यो कर उससे विराट पुरुष को समाज जनित भेद से जोड़ा??तो ध्यान मे आ जाता है की सारे वर्ण, सारी जातीय सारे भेद तो शरीर के है मन के है पर प्राण व आत्मा का क्या भेद??मनुष्य जो इतने भेदो मे पड़ा है वो उसका अज्ञान है जबकि हर जगह वो विराट पुरुष है माने ये की वो ही ब्रहम्न है वो ही शूद्र है वो ही क्षत्रिय है वो ही वैश्य है यहा तक की हर प्राणी वो ही है भूमि वायु जल अग्नि आकाश सब कुछ वो ही है हर एक में उस विराट पुरुष याने परम ब्रह्म की सत्ता का अनुभव करो जो जो उस को परम तत्व को हर एक मे देख लेगा वो वो पंडित हो जाएगा प्रमाण रूप मे स्मृति गीता को देखे |
अत: मैं इस निष्कर्ष पर पाहुच सकता हूँ की ये सूक्त भेद को नहीं बल्कि अभेद को बडावा देता है जिसकी जैसे बुधधी होगी वो इसे वैसे ही रूप मे लेगा क्योकि तर्क की तलवार हमेश दुधारी होती है |
२.अब प्रश्न आता है ये वर्ण क्या है ???वर्ण शब्द ‘वृञ वरणे या ‘वरी” धातु से बना है जिसका अर्थ है वरण करना ?क्या वरण करना ??किसको वरण करना???तो गीता कहती है “चतुरवर्णयम मया सृष्टि गुण: कर्म: विभागश:” मतलब ये की इन वर्णों की उत्तपति खुद भगवान से हुयी है मतलब ये की सभी मानुषी खुद भगवान से ही जन्मे है मैं यहा पर भगवान शंकरचार्य के गीता पर शंकर भाष्य के मूल इस श्लोक का संस्कृत देता हूँ जरा खुद अवलोकन करें :चातुवर्ण्यम चत्वार एव वर्णा: चातुवर्ण्यम मया ईश्वरेण सृष्टम
उत्पादित्म,”ब्राह्मणो`अस्य मुखमासीत’इत्यादिश्रुते:,गुंणकर्मविभागशा गुणविभागश: च गुणा: सत्त्वर्जस्तमांसी|
तत्र सात्त्विकस्य सत्त्वप्रधानस्य ब्राह्मणस्य शमों दम: तप इत्यादिनी कर्माणी|
सतत्वोपसर्जनरज: प्रधानस्य क्षत्रियस्य शौर्यतेज:प्रभृतिनी कर्माणी|
तमउपसर्जनतम: प्रधानस्य वैश्यस्य कृष्यादिनी कर्माणी|
रजउपसर्जनतम: प्रधानस्य शूद्रस्य शुश्रूषा एव कर्म|
इति एवं गुणकर्मविभागश: चतुरवर्णयम मया सृष्टम इत्यर्थ:|
तत च इदं चातुवर्ण्यम न अन्येषु लोकेषु आटो मानुषे लोके इति विशेषणम|



ईसका अर्थ समझना ज्यादा कठिन न है फिर भी मैं एक टेबल फोरम मे इसका अर्थ देता हूँ
गुणों की प्रधानता के क्रम में वर्ण कर्म
सत्त्व रज तम ब्राह्मण शम दम तप आदि|
रज सत्त्व तम क्षत्रिय शूरवीरता,तेज प्रभृति
रज तम सत्त्व वैश्य कृषि जनित क्रम
तम रज सत्त्व शूद्र शुश्रूषा

यहा पर मैं सिर्फ शूद्र वर्ण का कर्म बताउगा यहा लिखा है शुश्रूषा क्या अर्थ है इसका??
सीधी से बात है जो शूद्र वर्ण से संबन्धित होगा उसका बौद्धिक स्तर बहुत कम होगा अपने क्रोध अपने मानव जनित गुण अवगुणो पर उसका नियंत्रण बहुत कम होगा एसे मानव की भी मोक्ष गति होती है अगर वह अपना सारा कर्म सेवा समझ कर करे जैसे एक मजदूर है वो कोई मकान बनाता है तो उसकी विचार पद्धति क्या होनी चाहिए ??
1 मजबूरी है इस लिए बना रहा हूँ।2।मुझे सिर्फ ये ही आता है अत: क्या करू? 3 ईश्वर की कृपा है की मैं ईश्वर के निवास स्थान बनाने में महत्व पूर्ण भूमिका निभा रहा हूँ क्योकि मकान मे निवास करने वाले मानव के हृदय मे भी ईश्वर है और ईश्वर का घर तो वैसे भी इसमे बनेगा ही 4 मैं अपने कर्तव्य का पालन कर रहा हूँ |
अब ऊपर के चार विचार देखिये उसमे जो प्रथम दो विचार है वो नकारात्मक है एसे विचार रहेंगे तो धीरे धीरे वो व्यक्ति कुंठित होगा उसका कोई जागतिक विकास न होगा जबकि अंतिम दो विचार उसे क्रमश: परमार्थिक व लोकीक स्तर में उन्नत्त करने मे साधक होंगे और इस भाव से कर्म करने को ही सेवा कहा गया है न की दूसरे वर्णो की गुलामी करने को सेवा, याद रखिए गुलामी को हमारे शास्त्र बहुत बड़ा पाप मानते है फिर चाहे वो गुलामी किसी की भी हो|कर्म चाहे कैसा भी हो मानव को उसे करने मे केवल कर्तव्य पालन का भाव रख कर करना चाहिए कर्म पालन से भागना ही पाप है यहा भागना से तात्पर्य मन को खिन्न रख कर कर्म करने व कर्म को छोड़ देने दोनों से ही है अंहकार को त्याग कर सेवा बुद्धि से करम करना ही सेवा है और ये ही इस कलियुग में तप है वर्ण काल का भी होता है माने ये की काल का भी एक स्वभाव होता है
{कर्म बाहर भी हो सकता है व कर्म मन के अंदर भी हो सकता है-जिसे मानसिक कर्म कहते है |मन जो भी सोचे वह भी कर्म है |संकल्पपूर्वक चिंतन का एक क्रम रखते है तो वह भी एक मानसिक कर्म है |हम ‘सर्वे भावन्तु सूखीं:’ प्रार्थना कराते हैं यह भी मानसिक कर्म हो गया| तो चार वरणों का उल्लेख हो गया| अभी हम कौन से वर्ण में बैठे हुए हैं| कौन से युग में बैठे हुवे हैं?कलियुग में-कलियुग का भी अपना एक स्वभाव है|जैसे स्थान का एक स्वभाव होता है,एक प्रभाव होता है,वैसे प्रत्येक युग का भी एक स्वभाव होता है|ओउर इसका प्रभाव प्रकट होना शुरू हो गया-जब द्वापर का अंत हुआ|कृष्ण भगवान ने जब अपनी लीला समाप्त की तब कलियुग के प्रारम्भ को ही हम मानते हैं……पुराण बताते है की प्रारम्भ में सभी सत्त्व्गुनी होते थे |अत: सब ब्राह्मण वर्ण के होते थे|पर आज के युग के संदर्भ में हम यह कह नहीं सकते की जन्मजात ही इन सारे गुणों को लेकर कोई प्रकट होता है| कालजयी सनातन धर्म-संवित सोमगिरी जी से उधृधत }
वर्ण का निर्धारण करने की पद्धति क्या थी??कैसे वर्ण का निर्धार्ण होता था??काल के प्रवाह में वो पदध्द्ध्ती चली गयी है लेकिन फिर भी कुछ रूप मे अभी भी विध्यमान है जैसे किसी बच्चे के सामने एक कलाम एक छोटी कृपाण एक बहीखाता व एक छोटा हथोड़ा या हल रख दो और देखिये की उस बच्चे की स्वाभाविक प्रवृति की किस तरफ है जिस तरफ हो वो उसका वर्ण हो सकता है लेकिन ये पद्धति भी एकदम से सही हो ईएसए नहीं कहा जा सकता है जैसे जैसे मानुशय का विकास होता है वैसे वैसे उसके मूलभूत गुण प्रकट होते जाते है और वो बहुत ही स्वाभाविक रीति से उस वर्ण का बनता जाता है
बार बार करने से वो उसका संस्कार बनता जाता है वो उसका स्वभाव भी बनाता है और वर्ण भी |जैसे किसी को सत्य व धर्म की बार बार शिक्षा दी जावे व उसके सामने उसके आत्मीय बंधु उस धर्म का पालन करते मिल जावे तो वो बच्चा अत्यंत स्वाभाविक रीति से उस सत्य धर्म को पालन करना आरंभ कर देता है और उसका वर्ण भी वो ही हो जाता है जो उसके आत्मीयों याने माँ पिता दादा चाचा मामा आदि का इसी तरह अगर बच्चा अपने माँ पिता को मजदूरी करते देखता है तो वो भी वैसा ही करना शुरू कर देगा अगर पिता झूठ बोलेगा तो बच्चा भी ये ही करेगा बहुत ही स्वाभाविक है इस प्रकार के विभिन्न कार्यो को देखते देखते ही वर्ण कब जाती बन गया इसका पता तो किसी इतिहास को नहीं है सभी भ्रम में है अपने अपने सिध्ध्न्त देते है |
मैं यहा पर दिये गए सिद्धांतो का एक छोटा सा विवरण दे रहा हूँ कृपया अवलोकन करें :वर्ण की उत्तपति का विदेशी एवं भारतीयो द्वारा दिया गया सिद्धान्त
A।परंपरागत {traditional} सिद्धांत
B रंग का सिद्धान्त {थियरि ऑफ colour}
C कर्म तथा धर्म का सिद्धान्त {theory of function and religion}
D गुण का सिद्धान्त {theory of traits}
E जन्म का सिद्धान्त {theory ऑफ birth}
आसान सी बात है की ऊपर दिये गए सिद्धान्त में से अनेक जाती के है वर्ण के नहीं वर्ण व जाती अलग अलग है|\
अब प्रश्न यह है की आधुनिक भारतीय परंपरागत विद्धान क्या कहते है इस बारे में तो ऊपर मेने वेदान्त के प्रकांड विद्धान पूज्य सोमगिरी जी महाराज को उद्धृत किया था अब मैं पूरे विश्व में कृष्ण भक्ति का प्रचार कर नाम कमाने वाले पूज्य स्वामी प्रभुपाद स्वामी जी को उद्धृत करता हूँ {सर्वप्रथम बुद्धिमान मनुष्यों का वर्ग आता है जो सतोगुणी होने के कारण ब्रहम्न कहलाते है द्व्तिय वर्ग प्रशासक वीआरजी का है जिनहे रजोगुणी होने के कारण क्षत्रिय कहा जाता है वणिक वर्ग या वाइशी वर्ग कहलाने वाले लोग रजो तथा तमो गुण के मिश्रण से युक्त होते हैं ओर शूद्र या श्रमिक वर्ग के लोग तमो गुणी होते है –प-160 गीता यथा रूप }
अब भारत के द्वितीय राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधा कृष्णन को “वर्णो का विभाजन व्यक्तिगत स्वभाव पर आधारित है,जो अपरिवर्तनीय नहीं है|प्रारम्भ में केवल एक ही वर्ण था|हम सबके सब ब्रहम्न थे या सबके सब शूद्र थे|”

जरा इस को देखे
“ न योनीनार्पी संस्कारो न श्रतं न च संतति:||
कारणानि व्दिजत्वस्य वृत्तमेव तू कारणम|

और “सर्वोपम ब्राह्मणो लोके वृतेन च विधियते
वृत्तस्थित्स्तु शूद्रोपि ब्रह्मणत्व्म नियच्छ्ती|

हम ब्रहम्न जन्म के कारण संस्कार के कारण अध्ययन या कुटुंब के कारण नहीं होते।अपितु अपने आचरण के कारण होते है |”

अब प्रश्न यह उठता है वो लोग कौन थे जिनहोने इस वर्ण व्यवस्था को जाती के समान बताया???या मैं सही शब्दो मे कहू तो जान बुझ कर वर्णआश्रम को जातिगत व्यवस्था कह कर प्रचारित करवाया गया उसमे हम जानेंगे की पादरियों कम्युनिस्टो व अंग्रेज़ो व उनका अनुसरण करने वाले इतिहासकारो का योगदान है ही साथ मे अपने अपने जाती की जातिगत उचता या नीचता का अभिमान या हिन भाव रखने वालो का भी योगदान है |
मेने वर्ण के बारे मे इतना विवरण इस लिए ही दिया है की अब मैं आगे की पंक्तियो में जाती का अर्थ उपयोगिता कुरुती उसकाओ दूर करने का तरीका व आरक्षण के बारे मे बता संकु।
पर उससे पहले मैं यहां यह बता देना चाहता हूँ की मेरी व्यक्तिगत रूप से अनेक महात्माओ से बात हुए है सभी इस बात पर एक मत है की वर्ण तब ही लागू होगा जब आश्रम पद्धति हो माने वर्णाश्रम है न की केवल वर्ण|
ब्रह्मचारी से लेकर संयास तक के आश्रमो का पालन करने वाले व्यक्ति ही वर्ण के विशेषाधिकार या अनधिकार के हेतु हो सकते है मेरी जानकारी के अनुसार आज कही भी कोई वर्ण नहीं है क्यूकी आश्रम नहीं है हा लक्षणिक रूप से हम विधवान,प्रशासक व्यापारी व कामगार इस रूप मे कह सकते है |क्रमश:.....
3।जाती क्या है??कैसे ये उत्तप्न्न हुई ???क्या महत्व है इसका??क्या गुण अवगुण है इसके??कैसे ये शोषण का हथियार बनी?? इन सबा को जानने से पहले ये जानना पड़ेगा की ये पैदा कहा से हुयी है इस के पैदा होने के भी अनेक कारण दिये गए है जो विदेशियों व भारतीय विद्धवनों ने दिये है उनको नीचे प्रस्तुत करता हूँ
A।परंपरागत {traditional} सिद्धांत –खास बात यह है की वर्ण और जाती को एक मानकर ही यह सिद्धांत दिया गया है जिसके अनुसार उस अंगो से जाती की उततापति हुयी है जिसका खंडन मेने पहले ही कर दिया है|
B राजनीतिक सिद्धांत{थियरि ऑफ पॉलिटिकल }- पहले मैं इसके बारे में बताता हूँ-प्रांभिक यूरोपियन विधवानों ने जाती प्रथा को ब्रहमनों द्वारा आयोजित एक चतुर राजनेतीक योजना का रूप बताया है|इन मे “अबे डुबायस{abb dubois}” का नाम प्रमुख है आप कहते है की ब्रामानों ने अपनी प्रभुता बनाए रखने के लिए धर्म का सहारा लिया और एसी व्यवस्था बनाई जिसमे अपना स्थान सबसे ऊपर रखा और उन लोगो को द्वितीय स्थान दिया जोकि अपने बाहुबल से ब्रहनों के स्वार्थ की रक्षा कर सके याने क्षत्रिय |विदेशी इबेटसन{ibetson} और डॉक्टर घूरिए{ghurye} ने भी इनका समर्थन किया है
अब इसकी काट में-जाती एक सामाजिक संस्था है व कम से कम भारत मे 2000 साल से अस्तित्व में है अत: यह कहना की 2000 साल से भारत एक कृतिम आवरण को ढ़ोह रहा है मूर्खता के अलावा क्या होगी??एक कहावत है की आप सबको एक समय के लिए मूर्ख बना सकते हो कुछ को सब समय के लिए मूर्ख बना सकते हो पर सबको सब समय के लिए मूर्ख नहीं बना सकते इस कारण इस सामाजिक ढ़ाचे को खड़ा करना व इतने लंबे समय तक चलाये रखना व सारे समाज का इसको पालन करना उस सबका उत्त्र्दायित्व ब्राह्मण के कंधो पर डाल कर अंग्रेज़ ये साबित करना चाहते थे की सारी कुरुती व सारी गरीबी छूआ छूत आदि का कारण ब्राह्मण है इस कारण उसे प्रताड़ित करने मे हमारा याने अंग्रेज़ो का सहयोग दो ,पर एसा करना अंग्रेज़ क्यो चाहते थे??तो कारण ध्यान मे आता है ब्रहमनों ने कभी भी अंग्रेज़ो की प्रतिष्ठा को हिन्दू समाज ही नहीं सारे भारतीय समाज मे नहीं बढ़ाने दिया सभी उनसे घृणा करते थे एक तो अंग्रेज़ो के पाप भी बहुत थे दूसरे ब्रहम्न लोग हमेशा हिन्दू जनता को अंग्रेज़ो के खिलाफ भड़काते रहते थे उनके भारत में राज को चुनोती देते थे ये मात्र एक संयोग नहीं है की वसुदेव बलवंत फडके से लेकर मंगल पांडे या तिलक महाराज तक सारे के सारे जातिगत ब्राह्मण थे और इनकी बात सारा समाज सुनता था जब तक अंग्रेज़ो ने मैकालेके माध्यम से एक पीढ़ी की पीढ़ी नहीं तैयार कर ली तब तक ये अंग्रेज़ भारत मे बहुत ही घृणा से देखे जाने लगे थे |वास्तव में किसी भी स्मजिक प्रथा या व्यवस्था को चतुराई से या कृतिम रूप से समाज पर नहीं लादा जा सकता है |



जाती वर्ण वर्णाश्रम व आरक्षण

“जाती ,वर्ण,आश्रम एवं आरक्षण”

जातिगत दुकानदार अचानक सक्रिय हो गए है वैसे भी आज का माहौल है की यत्र तत्र जाती और आरक्षण की चरचा होती रहती है हर नयी जाती अपने को आरक्षण पाने के योग्य बनाने पर तुली रहती है तो हर नयी जाती आरक्षण का विरोध करती नजर आती है इन सबसे ज्यादा फायदा उन दुकान दारो का भला होता है जो जातिगत रोटिया सेकते है व भविष्य मे अपने लिए राजनीति का डगर फीक्स कर देते है मेरे इस लेख को लिखने का उद्धेशय जाती वर्ण फिर वर्णाश्रम फिर आरक्षण पर मेरे विचार व अनेक चिंतको के विचारो का संकलन कर मेरे विचार को पुष्ट करना है और बिना किसी लग लपेट के मैं कहता हूँ की किसी भी प्रकार का आरक्षण इसी क्षण से समाप्त होना ही समाज हित में है जाहीर है अपने लेख से पहले ही मेने अपने विचार स्पष्ट कर दिये तो अगली पंक्तियो मे मैं उसके पक्ष मे विभिन्न प्रकार के तर्क व तथ्य व उध्ध्रन देने का प्रयास करूंगा |
1॰ ये सारा का सारा झमेला या यूं कहे आखाडा जिस एक सूक्त से प्रारम्भ होता है उसका नाम है पुरुष सूक्त ,पुरुष सूक्त अत्यंत पवित्र समझा जाता है और मैं भी उसे बहुत पवित्र मानता हूँ उसके उच्चारण के कम्पन्न से होने वाले भीतरी परिवर्तन को मेने अनेकों बार अनुभव किया है अनुभव किसी को करना हो तो वो इसे किसी जानकार से सीख कर उस स्वर व पवित्र मन से उच्चरित करें व असर को खुद अनुभूत करे खैर मूल बात पर आते है एसे कहा जाता है की जातिगत भेदभाव का आरंभ पुरुष सूक्त से हुवा है और उसके प्रमाण मे स॒हस्र॑ शीर्षा॒ पुरु॑षः । स॒ह॒स्रा॒क्षः सहस्र॑पात् । स भूमिं॑ वि॒श्वतो॑ वृ॒त्वा । अत्य॒तिष्ठद्दशांगु॒लम् । पुरु॑ष ए॒वेदग्ं सर्वम्॓ व आगे के “ब्राह्मणो मुखमसीत से लेकर शूद्रो अजायत “ का विवरण दिया जाता है ,पर जब हम इस सूक्त को पूरा का पूरा पढ़ते है तब ये भान होता है की इसमे जिन पुरुष का वर्णन है वो को शशिर धारी नहीं है न ही उसकी कोई देह है न लोकिक न परमार्थिक,फिर क्यो कर उससे विराट पुरुष को समाज जनित भेद से जोड़ा??तो ध्यान मे आ जाता है की सारे वर्ण, सारी जातीय सारे भेद तो शरीर के है मन के है पर प्राण व आत्मा का क्या भेद??मनुष्य जो इतने भेदो मे पड़ा है वो उसका अज्ञान है जबकि हर जगह वो विराट पुरुष है माने ये की वो ही ब्रहम्न है वो ही शूद्र है वो ही क्षत्रिय है वो ही वैश्य है यहा तक की हर प्राणी वो ही है भूमि वायु जल अग्नि आकाश सब कुछ वो ही है हर एक में उस विराट पुरुष याने परम ब्रह्म की सत्ता का अनुभव करो जो जो उस को परम तत्व को हर एक मे देख लेगा वो वो पंडित हो जाएगा प्रमाण रूप मे स्मृति गीता को देखे |
अत: मैं इस निष्कर्ष पर पाहुच सकता हूँ की ये सूक्त भेद को नहीं बल्कि अभेद को बडावा देता है जिसकी जैसे बुधधी होगी वो इसे वैसे ही रूप मे लेगा क्योकि तर्क की तलवार हमेश दुधारी होती है |
२.अब प्रश्न आता है ये वर्ण क्या है ???वर्ण शब्द ‘वृञ वरणे या ‘वरी” धातु से बना है जिसका अर्थ है वरण करना ?क्या वरण करना ??किसको वरण करना???तो गीता कहती है “चतुरवर्णयम मया सृष्टि गुण: कर्म: विभागश:” मतलब ये की इन वर्णों की उत्तपति खुद भगवान से हुयी है मतलब ये की सभी मानुषी खुद भगवान से ही जन्मे है मैं यहा पर भगवान शंकरचार्य के गीता पर शंकर भाष्य के मूल इस श्लोक का संस्कृत देता हूँ जरा खुद अवलोकन करें :चातुवर्ण्यम चत्वार एव वर्णा: चातुवर्ण्यम मया ईश्वरेण सृष्टम
उत्पादित्म,”ब्राह्मणो`अस्य मुखमासीत’इत्यादिश्रुते:,गुंणकर्मविभागशा गुणविभागश: च गुणा: सत्त्वर्जस्तमांसी|
तत्र सात्त्विकस्य सत्त्वप्रधानस्य ब्राह्मणस्य शमों दम: तप इत्यादिनी कर्माणी|
सतत्वोपसर्जनरज: प्रधानस्य क्षत्रियस्य शौर्यतेज:प्रभृतिनी कर्माणी|
तमउपसर्जनतम: प्रधानस्य वैश्यस्य कृष्यादिनी कर्माणी|
रजउपसर्जनतम: प्रधानस्य शूद्रस्य शुश्रूषा एव कर्म|
इति एवं गुणकर्मविभागश: चतुरवर्णयम मया सृष्टम इत्यर्थ:|
तत च इदं चातुवर्ण्यम न अन्येषु लोकेषु आटो मानुषे लोके इति विशेषणम|



ईसका अर्थ समझना ज्यादा कठिन न है फिर भी मैं एक टेबल फोरम मे इसका अर्थ देता हूँ
गुणों की प्रधानता के क्रम में वर्ण कर्म
सत्त्व रज तम ब्राह्मण शम दम तप आदि|
रज सत्त्व तम क्षत्रिय शूरवीरता,तेज प्रभृति
रज तम सत्त्व वैश्य कृषि जनित क्रम
तम रज सत्त्व शूद्र शुश्रूषा

यहा पर मैं सिर्फ शूद्र वर्ण का कर्म बताउगा यहा लिखा है शुश्रूषा क्या अर्थ है इसका??
सीधी से बात है जो शूद्र वर्ण से संबन्धित होगा उसका बौद्धिक स्तर बहुत कम होगा अपने क्रोध अपने मानव जनित गुण अवगुणो पर उसका नियंत्रण बहुत कम होगा एसे मानव की भी मोक्ष गति होती है अगर वह अपना सारा कर्म सेवा समझ कर करे जैसे एक मजदूर है वो कोई मकान बनाता है तो उसकी विचार पद्धति क्या होनी चाहिए ??
1 मजबूरी है इस लिए बना रहा हूँ।2।मुझे सिर्फ ये ही आता है अत: क्या करू? 3 ईश्वर की कृपा है की मैं ईश्वर के निवास स्थान बनाने में महत्व पूर्ण भूमिका निभा रहा हूँ क्योकि मकान मे निवास करने वाले मानव के हृदय मे भी ईश्वर है और ईश्वर का घर तो वैसे भी इसमे बनेगा ही 4 मैं अपने कर्तव्य का पालन कर रहा हूँ |
अब ऊपर के चार विचार देखिये उसमे जो प्रथम दो विचार है वो नकारात्मक है एसे विचार रहेंगे तो धीरे धीरे वो व्यक्ति कुंठित होगा उसका कोई जागतिक विकास न होगा जबकि अंतिम दो विचार उसे क्रमश: परमार्थिक व लोकीक स्तर में उन्नत्त करने मे साधक होंगे और इस भाव से कर्म करने को ही सेवा कहा गया है न की दूसरे वर्णो की गुलामी करने को सेवा, याद रखिए गुलामी को हमारे शास्त्र बहुत बड़ा पाप मानते है फिर चाहे वो गुलामी किसी की भी हो|कर्म चाहे कैसा भी हो मानव को उसे करने मे केवल कर्तव्य पालन का भाव रख कर करना चाहिए कर्म पालन से भागना ही पाप है यहा भागना से तात्पर्य मन को खिन्न रख कर कर्म करने व कर्म को छोड़ देने दोनों से ही है अंहकार को त्याग कर सेवा बुद्धि से करम करना ही सेवा है और ये ही इस कलियुग में तप है वर्ण काल का भी होता है माने ये की काल का भी एक स्वभाव होता है
{कर्म बाहर भी हो सकता है व कर्म मन के अंदर भी हो सकता है-जिसे मानसिक कर्म कहते है |मन जो भी सोचे वह भी कर्म है |संकल्पपूर्वक चिंतन का एक क्रम रखते है तो वह भी एक मानसिक कर्म है |हम ‘सर्वे भावन्तु सूखीं:’ प्रार्थना कराते हैं यह भी मानसिक कर्म हो गया| तो चार वरणों का उल्लेख हो गया| अभी हम कौन से वर्ण में बैठे हुए हैं| कौन से युग में बैठे हुवे हैं?कलियुग में-कलियुग का भी अपना एक स्वभाव है|जैसे स्थान का एक स्वभाव होता है,एक प्रभाव होता है,वैसे प्रत्येक युग का भी एक स्वभाव होता है|ओउर इसका प्रभाव प्रकट होना शुरू हो गया-जब द्वापर का अंत हुआ|कृष्ण भगवान ने जब अपनी लीला समाप्त की तब कलियुग के प्रारम्भ को ही हम मानते हैं……पुराण बताते है की प्रारम्भ में सभी सत्त्व्गुनी होते थे |अत: सब ब्राह्मण वर्ण के होते थे|पर आज के युग के संदर्भ में हम यह कह नहीं सकते की जन्मजात ही इन सारे गुणों को लेकर कोई प्रकट होता है| कालजयी सनातन धर्म-संवित सोमगिरी जी से उधृधत }
वर्ण का निर्धारण करने की पद्धति क्या थी??कैसे वर्ण का निर्धार्ण होता था??काल के प्रवाह में वो पदध्द्ध्ती चली गयी है लेकिन फिर भी कुछ रूप मे अभी भी विध्यमान है जैसे किसी बच्चे के सामने एक कलाम एक छोटी कृपाण एक बहीखाता व एक छोटा हथोड़ा या हल रख दो और देखिये की उस बच्चे की स्वाभाविक प्रवृति की किस तरफ है जिस तरफ हो वो उसका वर्ण हो सकता है लेकिन ये पद्धति भी एकदम से सही हो ईएसए नहीं कहा जा सकता है जैसे जैसे मानुशय का विकास होता है वैसे वैसे उसके मूलभूत गुण प्रकट होते जाते है और वो बहुत ही स्वाभाविक रीति से उस वर्ण का बनता जाता है
बार बार करने से वो उसका संस्कार बनता जाता है वो उसका स्वभाव भी बनाता है और वर्ण भी |जैसे किसी को सत्य व धर्म की बार बार शिक्षा दी जावे व उसके सामने उसके आत्मीय बंधु उस धर्म का पालन करते मिल जावे तो वो बच्चा अत्यंत स्वाभाविक रीति से उस सत्य धर्म को पालन करना आरंभ कर देता है और उसका वर्ण भी वो ही हो जाता है जो उसके आत्मीयों याने माँ पिता दादा चाचा मामा आदि का इसी तरह अगर बच्चा अपने माँ पिता को मजदूरी करते देखता है तो वो भी वैसा ही करना शुरू कर देगा अगर पिता झूठ बोलेगा तो बच्चा भी ये ही करेगा बहुत ही स्वाभाविक है इस प्रकार के विभिन्न कार्यो को देखते देखते ही वर्ण कब जाती बन गया इसका पता तो किसी इतिहास को नहीं है सभी भ्रम में है अपने अपने सिध्ध्न्त देते है |
मैं यहा पर दिये गए सिद्धांतो का एक छोटा सा विवरण दे रहा हूँ कृपया अवलोकन करें :वर्ण की उत्तपति का विदेशी एवं भारतीयो द्वारा दिया गया सिद्धान्त
A।परंपरागत {traditional} सिद्धांत
B रंग का सिद्धान्त {थियरि ऑफ colour}
C कर्म तथा धर्म का सिद्धान्त {theory of function and religion}
D गुण का सिद्धान्त {theory of traits}
E जन्म का सिद्धान्त {theory ऑफ birth}
आसान सी बात है की ऊपर दिये गए सिद्धान्त में से अनेक जाती के है वर्ण के नहीं वर्ण व जाती अलग अलग है|\
अब प्रश्न यह है की आधुनिक भारतीय परंपरागत विद्धान क्या कहते है इस बारे में तो ऊपर मेने वेदान्त के प्रकांड विद्धान पूज्य सोमगिरी जी महाराज को उद्धृत किया था अब मैं पूरे विश्व में कृष्ण भक्ति का प्रचार कर नाम कमाने वाले पूज्य स्वामी प्रभुपाद स्वामी जी को उद्धृत करता हूँ {सर्वप्रथम बुद्धिमान मनुष्यों का वर्ग आता है जो सतोगुणी होने के कारण ब्रहम्न कहलाते है द्व्तिय वर्ग प्रशासक वीआरजी का है जिनहे रजोगुणी होने के कारण क्षत्रिय कहा जाता है वणिक वर्ग या वाइशी वर्ग कहलाने वाले लोग रजो तथा तमो गुण के मिश्रण से युक्त होते हैं ओर शूद्र या श्रमिक वर्ग के लोग तमो गुणी होते है –प-160 गीता यथा रूप }
अब भारत के द्वितीय राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधा कृष्णन को “वर्णो का विभाजन व्यक्तिगत स्वभाव पर आधारित है,जो अपरिवर्तनीय नहीं है|प्रारम्भ में केवल एक ही वर्ण था|हम सबके सब ब्रहम्न थे या सबके सब शूद्र थे|”

जरा इस को देखे
“ न योनीनार्पी संस्कारो न श्रतं न च संतति:||
कारणानि व्दिजत्वस्य वृत्तमेव तू कारणम|

और “सर्वोपम ब्राह्मणो लोके वृतेन च विधियते
वृत्तस्थित्स्तु शूद्रोपि ब्रह्मणत्व्म नियच्छ्ती|

हम ब्रहम्न जन्म के कारण संस्कार के कारण अध्ययन या कुटुंब के कारण नहीं होते।अपितु अपने आचरण के कारण होते है |”

अब प्रश्न यह उठता है वो लोग कौन थे जिनहोने इस वर्ण व्यवस्था को जाती के समान बताया???या मैं सही शब्दो मे कहू तो जान बुझ कर वर्णआश्रम को जातिगत व्यवस्था कह कर प्रचारित करवाया गया उसमे हम जानेंगे की पादरियों कम्युनिस्टो व अंग्रेज़ो व उनका अनुसरण करने वाले इतिहासकारो का योगदान है ही साथ मे अपने अपने जाती की जातिगत उचता या नीचता का अभिमान या हिन भाव रखने वालो का भी योगदान है |
मेने वर्ण के बारे मे इतना विवरण इस लिए ही दिया है की अब मैं आगे की पंक्तियो में जाती का अर्थ उपयोगिता कुरुती उसकाओ दूर करने का तरीका व आरक्षण के बारे मे बता संकु।
पर उससे पहले मैं यहां यह बता देना चाहता हूँ की मेरी व्यक्तिगत रूप से अनेक महात्माओ से बात हुए है सभी इस बात पर एक मत है की वर्ण तब ही लागू होगा जब आश्रम पद्धति हो माने वर्णाश्रम है न की केवल वर्ण|
ब्रह्मचारी से लेकर संयास तक के आश्रमो का पालन करने वाले व्यक्ति ही वर्ण के विशेषाधिकार या अनधिकार के हेतु हो सकते है मेरी जानकारी के अनुसार आज कही भी कोई वर्ण नहीं है क्यूकी आश्रम नहीं है हा लक्षणिक रूप से हम विधवान,प्रशासक व्यापारी व कामगार इस रूप मे कह सकते है |क्रमश:.....
3।जाती क्या है??कैसे ये उत्तप्न्न हुई ???क्या महत्व है इसका??क्या गुण अवगुण है इसके??कैसे ये शोषण का हथियार बनी?? इन सबा को जानने से पहले ये जानना पड़ेगा की ये पैदा कहा से हुयी है इस के पैदा होने के भी अनेक कारण दिये गए है जो विदेशियों व भारतीय विद्धवनों ने दिये है उनको नीचे प्रस्तुत करता हूँ
A।परंपरागत {traditional} सिद्धांत –खास बात यह है की वर्ण और जाती को एक मानकर ही यह सिद्धांत दिया गया है जिसके अनुसार उस अंगो से जाती की उततापति हुयी है जिसका खंडन मेने पहले ही कर दिया है|
B राजनीतिक सिद्धांत{थियरि ऑफ पॉलिटिकल }- पहले मैं इसके बारे में बताता हूँ-प्रांभिक यूरोपियन विधवानों ने जाती प्रथा को ब्रहमनों द्वारा आयोजित एक चतुर राजनेतीक योजना का रूप बताया है|इन मे “अबे डुबायस{abb dubois}” का नाम प्रमुख है आप कहते है की ब्रामानों ने अपनी प्रभुता बनाए रखने के लिए धर्म का सहारा लिया और एसी व्यवस्था बनाई जिसमे अपना स्थान सबसे ऊपर रखा और उन लोगो को द्वितीय स्थान दिया जोकि अपने बाहुबल से ब्रहनों के स्वार्थ की रक्षा कर सके याने क्षत्रिय |विदेशी इबेटसन{ibetson} और डॉक्टर घूरिए{ghurye} ने भी इनका समर्थन किया है
अब इसकी काट में-जाती एक सामाजिक संस्था है व कम से कम भारत मे 2000 साल से अस्तित्व में है अत: यह कहना की 2000 साल से भारत एक कृतिम आवरण को ढ़ोह रहा है मूर्खता के अलावा क्या होगी??एक कहावत है की आप सबको एक समय के लिए मूर्ख बना सकते हो कुछ को सब समय के लिए मूर्ख बना सकते हो पर सबको सब समय के लिए मूर्ख नहीं बना सकते इस कारण इस सामाजिक ढ़ाचे को खड़ा करना व इतने लंबे समय तक चलाये रखना व सारे समाज का इसको पालन करना उस सबका उत्त्र्दायित्व ब्राह्मण के कंधो पर डाल कर अंग्रेज़ ये साबित करना चाहते थे की सारी कुरुती व सारी गरीबी छूआ छूत आदि का कारण ब्राह्मण है इस कारण उसे प्रताड़ित करने मे हमारा याने अंग्रेज़ो का सहयोग दो ,पर एसा करना अंग्रेज़ क्यो चाहते थे??तो कारण ध्यान मे आता है ब्रहमनों ने कभी भी अंग्रेज़ो की प्रतिष्ठा को हिन्दू समाज ही नहीं सारे भारतीय समाज मे नहीं बढ़ाने दिया सभी उनसे घृणा करते थे एक तो अंग्रेज़ो के पाप भी बहुत थे दूसरे ब्रहम्न लोग हमेशा हिन्दू जनता को अंग्रेज़ो के खिलाफ भड़काते रहते थे उनके भारत में राज को चुनोती देते थे ये मात्र एक संयोग नहीं है की वसुदेव बलवंत फडके से लेकर मंगल पांडे या तिलक महाराज तक सारे के सारे जातिगत ब्राह्मण थे और इनकी बात सारा समाज सुनता था जब तक अंग्रेज़ो ने मैकालेके माध्यम से एक पीढ़ी की पीढ़ी नहीं तैयार कर ली तब तक ये अंग्रेज़ भारत मे बहुत ही घृणा से देखे जाने लगे थे |वास्तव में किसी भी स्मजिक प्रथा या व्यवस्था को चतुराई से या कृतिम रूप से समाज पर नहीं लादा जा सकता है |